कैसे बना भारत का हिस्सा हैदराबाद ?
१५ अगस्त १९४७ को जब आजादी मिली, तो शायद सरदार को इस बात का अनुमान हो गे था कि उनके पास बहुत वक़्त नहीं बचा है। गृह मंत्री के रूप में उनके सर के ऊपर समस्याओ का अम्बार लगा था। अंग्रेजो ने ऐसे-ऐसे खेल रचे थे कि भारत के गृह मंत्री को एक मिनट कि फुर्सत न मिले, लेकिन सरदार के मस्तिष्क में अपने लक्ष्य को हासिल करने कि पक्की कार्ययोजना थी और अपने सहयोगी वि0 पि0 मेनन के साथ मिलकर वे उसे पूरा कर रहे थे । आजादी के बाद देश में ऐसे कई रजवाड़े थे, जो अपने को भारत से अलग रखना चाहते थे। इन राजाओ को अंग्रेजो का नैतिक सम्रथन भी हासिल था। मुल्क का बटवारा हो चूका था और देश के कई इलाको में दंगे बड़े पैमाने पर भड़क गए थे, लेकिन सरदार पटेल ने देश कि एकता और अखंडता के लिए अपना सब कुछ दाव पे लगा दिया। जब १५ दिसम्बर १९५० उन्होंने शरीर त्यागा, तब आने वाली पीढियों के लिए वह एक ऐसा देश छोड़कर गए थे, जो पूरी तरह से एक राजनीतिक इकाई था। दुर्भाग्य यह है कि अज के नेता अपनी अदुर्दार्शिता के चलते उस देश को तरह-तरह के टुकडो में बटने में लगे हुए है।
हैदराबाद को स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनाने के लिए सरदार पटेल को बहुत सरे पापड़ बेलने पड़े थे। अंग्रेजो ने हैदराबाद के निजाम, उश्मान अली खान, को पता नहीं क्यों, भरोसा दिला दिया था कि वे उनकी मर्ज़ी का सम्मान करेंगे। किसी ज़माने में इंग्लैण्ड के सम्राट ने निजाम को अपना सबसे वफादार सहयोगी कह दिया था। अत: १९४७ के आस-पास जो लोग ब्रिटिश सत्ता के करीबी थे, वे निजाम कि भलाई के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल लार्ड मौन्ट बेटन भी उसी जमात में थे। वह निजाम से खुद ही बात-चित करना चाहते थे। सरदार पटेल ने उनको छुट दे रखी थी। लेकिन इस एक शर्त पर कि हैदराबाद का मसला सिर्फ भारत का मामला है, उसमे किसी बाहरी देश कि दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं कि जाएगी। उनके इस बयान में इंग्लैण्ड व पाकिस्तान, दोनों के लिए चेतावनी निहित थी।
हैदराबाद के निजाम भी पहुचे हुए थे, उन्होंने एक ब्रिटिश वकील कि सेवा ले रखी थी, जिसकी पहुच लन्दन से लेकर दिल्ली दरबार तक थी। सर वाल्टर मोक्तान नाम के इस वकील ने कई महीनो तक चीजो को घालमेल कि स्तिति में रखा। उसकी सलाह पर ही निजाम ने भारत में पूर्ण विलय कि बात न करके सहयोग के एक समझौते पर दस्तखत करने कि पेशकश कि थी। लार्ड माउन्ट बेटन भी इस पछ में थे। पर सरदार ने साफ मन कर दिया।
इस बिच निजाम पाकिस्तान में शामिल होने कि कोशिश भी कर रहे थे। सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि अगर निजाम इस बात कि गारंटी दे कि वह पाकिस्तान में कभी नहीं मिलेंगे, तो उनके साथ कुछ रियायत बरती जा सकती है। निजाम के राज़ी होने पर एक ऐसा समझौता हुआ, जिसके तहत भारत और हैदराबाद एक दुसरे कि राजधानी में एजेंट जनरल नियुक्त कर सकते थे। कुल मिलाकर, उस वक़्त का माहौल ऐसा बन गया था कि बाते ही बाते होती रहती थी और मामला उलझता जा रहा था। ऐसे में, सरदार पटेल ने कहा कि अगर निजाम इस जिद पर अड़े रहते है कि वह भारत में शामिल नहीं होंगे, तो उन्हें कम से कम लोकतान्त्रिक व्यवस्ता तो कायम कर ही देनी चाहिए। लेकिन हैदराबाद रियासत में कोई इस बात को मानने को तैयार ही नहीं था। इसलिए हैदराबाद को भारत के साथ मिलाना सरदार पटेल के सबसे मुश्किल कामो में एक साबित हुआ।
पता नहीं कहा से निजाम उस्मान अली खान को यह उम्मीद हो गई थी कि भारत कि आजादी के बाद हैदराबाद को भी 'दोमिनिअल स्टेटस' मिल जायेगा। जाहिर है, ऐसा हुआ नहीं, लेकिन इसी उम्मीद में निजाम ने थोक में गलतिय क़ी। यहाँ तक क़ी वह पर बकायदा शक्ति प्रयोग किया और हैदराबाद क़ी समस्या का हल निकाला गया. आखिर में सरदार को हैद्रब्द में सैन्य कार्यवाही करनी पड़ी, जिसके बाद ही हैदराबाद पूरी तरह से भारत का हिस्सा बन सका।
आज सरदार पटेल को गए ५९ साल हो गए, लेकिन अब भी महसूस होता है क़ी राजनितिक फैसले में उतनी ही दृढ़ता होनो चाहिए। राजनितिक फैसले में पर्दार्शिकता और मजबूती वास्तव में सरदार पटेल क़ी विरासत है। वैसे भी आंध्र प्रदेश क़ी राजनीती में बहुत सरे दाव-पेच होते है। जब सरदार पटेल जैसा गृह मंत्री परेशां हो सकता है, तो आज के गृह मंत्री को बहुत ही चौकन्ना रहना पड़ेगा। यदि वह वैसे ही फैसले लेते रहेंगे, जैसा इस बार लिया है, तो राजनितिक संकट और गहरा होगा।
शक्ति आनंद " क्या बात है "
5 comments:
अच्छी जानकारी दी आपने. स्वागत.
सदाबहार देव आनंद
अच्छी जानकारी के लिए धन्यवाद|
बसंत पंचमी की शुभकामनाएँ|
"महसूस होता है क़ी राजनितिक फैसले में उतनी ही दृढ़ता होनो चाहिए" - सही बात
आदरणीय,
आज हम जिन हालातों में जी रहे हैं, उनमें किसी भी जनहित या राष्ट्रहित या मानव उत्थान से जुड़े मुद्दे पर या मानवीय संवेदना तथा सरोकारों के बारे में सार्वजनिक मंच पर लिखना, बात करना या सामग्री प्रस्तुत या प्रकाशित करना ही अपने आप में बड़ा और उल्लेखनीय कार्य है|
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आशा है कि आप उत्तरोत्तर अपने सकारात्मक प्रयास जारी रहेंगे|
शुभकामनाओं सहित!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
सम्पादक (जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र ‘प्रेसपालिका’) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
(देश के सत्रह राज्यों में सेवारत और 1994 से दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन, जिसमें 4650 से अधिक आजीवन कार्यकर्ता सेवारत हैं)
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