बदहाल लोक कलाकार
भारत के समृद्ध सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को और भी ज्यादा मात्र में पल्लवित और पुष्पित करने में लोक कलाओ की एक महती भूमिका रही है। इसका कारन यहाँ की समरित सांस्कृतिक विरासत और सैकड़ो की संख्या में जातियों और जनजातियो का यहाँ अवस्थित होना सबसे बड़ी वजह है। लेकिन आज सोनभद्र की घसिया जनजाति भारत के सामाजिक बटवारे और आमिर और गरीब के बिच बदती खाई का एक जीवंत दृश्य बन गई है। सोनभद्र और इसके अस-पास के एरिया में करीब ५० से ५५ हजार की संख्या में रहने वाले घसिया जनजाति छोटे-छोटे कबीलों और गाव में स्थाई-अस्थाई रूप से निवास करते हैं. जिसके लोक कला में "करमा" नृत्य एक विशेष स्थान रखता है. यह नृत्य "करमा" देवता को समर्पित है. इन्होने इस नृत्य का नज़ारा देश के विभिन्न विभूतियों के सामने पेश किया है. लेकिन आज ये जनजाति हासिये की जिंदगी जीने को मजबूर है और इनके पास फक्काकाशी के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
आईसी सामाजिक विडम्बना केवल भारत वर्ष में ही संभावित है जहा लोक कलाकारों को सिर्फ मरने के लिए छोड़ दिया गया है. आज घसिया जनजाति के लोग अपने हजारो नौनिहालो को अपनी आँखों के सामने मरते हुए देख चुके है. जिसकी जीती जगती तवीर सोनभद्र की वह शिलापत्तिका है जिसे गैर सरकारी सस्ता ने कुपोसड और भूख से मरे हुए बच्चो की याद में लगवाया है. यह शिला-पट्टिका जहा एक तरफ भूख से मरे हुए बच्चो को याद करके समाज के लिए एक नाजिर पेश कर रही है. वही दूसरी तरफ सामाजिक दुरवेयवास्था को चिड़ा रहा है.
शासन और प्रशासन स्तर की बात करे तो वह यह मानने को कत्तई तैयार नहीं की इनकी मौते भूख से हुई है. बावजूद इसके यह बात जरूर कहते है की सरकार इनके पुनर्वास के लिए विचार कर रही है और समय-समय पर कार्यक्रमों के द्वारा मंच भी डे रही है. इनकी यह उपलब्धि और प्रयास रेगिस्तान में एक लोटा पानी के बराबर है.
"वैध मारा, रोगी मारा, मारा सकल संसार"
"एक कबीरा न मारा जाके नाम आधार"
कुछ ऐसी ही तस्वीर सोनभद्र की घसिया जनजाति की है जो न सिर्फ अपनों की लाशे ढो रहे है और अपनी संस्कृति को मरते हुए देख रहे है.
शक्ति आनंद "क्या बात है "
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