संस्कृति के हत्यारे



राजेन्द्र जोशी (विनियोग परिवार)
 
पांच सौ साल पहले यह दुनिया आज की तुलना में सुखी और हिंसा रहित थी। लेकिन 1492 में एक ऐसी घटना घटी जिसने सारे विश्व के प्रवाह को मोड़ दिया। पहले देश-विदेश से वस्तु के आयात-निर्यात का काम जहाजों से होता था। ऐसे जहाजों को यूरोप के लुटेरे लूट लेते थे और उसके बंटवारे को लेकर उनमें विवाद होता था। इन विवादों को निपटाने के लिए वे अपने धर्म गुरुओं की शरण लेते थे, जो उनके झगड़े निपटाते थे। यूरोप के धर्म गुरु पोप थे, जो पहले रोम में रहते थे, परन्तु आजकल उन्होंने वेटिकन नाम का एक स्वतन्त्र राष्ट्र बना लिया है। उस राष्ट्र के राजनीतिक प्रमुख होने के साथ-साथ पोप कैथोलिक क्रिश्चियन समुदाय के धर्म गुरु भी हैं।
1493 में किसी बात पर स्पेन और पुर्तगाल में विवाद हो गया और पोप ने पूरे विश्व को दो हिस्सों में बांट दिया। पूर्व का हिस्सा उन्होंने पुर्तगाल को और पश्चिम का हिस्सा स्पेन को दे दिया। इस आदेश के साथ-साथ ये आदेश भी दिया गया कि आज से विश्व में एक ही धर्म रहेगा, ईसाई धर्म और एक ही प्रजा रहेगी गोरी प्रजा। अन्य जातियों व धर्मों का नाश होगा। इस उद्देश्य को लेकर ईसाई देश संपूर्ण विश्व पर कब्जा करने में लग गये। पोप के नेतृत्व में उन्होंने भारत में प्रवेश के लिए 100-100 साल के पांच चरण बनाए।
पहला चरण 100 साल का यह बना कि जिस देश को खत्म करना है, पहले उसकी पूरी जानकारी लेनी है। इस दौरान यूरोपियन पर्यटक हमारे देश के कोने-कोने में घूमे और हमारी कमजोरियों, भौगोलिक परिस्थितियों, कृषि पद्धति आदि का अध्ययन किया।
दूसरे चरण में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के जरिए देश में व्यापार करने की इजाजत मांगी गई। किसी भी देश को चलाने के लिए चार आधार होते हैं। राजकीय, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक। अग्रेजों ने पहले यहां की राजसत्ता पर कब्जा किया, फिर हमारे इतिहास को बदल कर राजाओं और व्यापारियों का नकारात्मक चित्र प्रस्तुत किया। उन्होंने ब्राह्मणों और क्षत्रियों को उनके काम से बेदखल किया। धीरे-धीरे उन्होंने हमारी आर्थिक संरचना को भी तोड़ डाला।
अंतिम चरण में उन्होंने हमारी धार्मिक संरचना पर प्रहार किया जो अभी भी जारी है। इसके लिए उन्होंने हमारी शिक्षा व्यवस्था पर शिकंजा कस लिया है। हमारी आर्थिक संरचना को नष्ट करने के लिए उन्होंने गोवंश और उस पर आधारित कृषि को निशाना बनाया। दरअसल, इस देश में गायों की हत्या मुसलमानों ने शुरू नहीं की। अंग्रेज सैनिकों को मांस देने के लिए यहां गो हत्या शुरू हुई और बाद में अंग्रेजों ने ही इसे सांप्रदायिक मामला बनाकर पूरे देश को दो हिस्सो में बांट दिया।
कृषि को नष्ट करने के लिए रासायनिक खाद को बढ़ावा दिया गया। जनता को भुलावे में डालने के लिए एक हउआ खड़ा किया गया कि हमारे यहां अनाज का उत्पादन बहुत कम है। अगर हम इस उत्पादन को नहीं बढ़ाएंगे तो देश में अकाल पड़ेगा। वास्तव में 1931 का अकाल मैन मेड अकाल था। अंग्रेजों ने जानबूझ कर यहां अकाल पैदा किया था। अकाल का डर दिखाकर केमिकल फर्टिलाइजर के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया गया। इसका दुष्परिणाम अब सामने आ रहा है। हमारी जमीन प्रदूषित है, हमारा अनाज प्रदूषित है और यहां तक की पेयजल भी प्रदूषित है।
हमारी देशी गाय को खत्म करना एक अन्तरराष्ट्रीय षडयंत्र है। इस षडयंत्र पर नजर रखने की जरूरत है। मात्र गोबर, गोमूत्र से औषधि बनाने से ये काम नहीं होगा। कृषि पद्धति को बदलने और गोचर भूमि को बचाने के साथ-साथ गाय को मारने के पीछे कौन हैं, जब तक हम इसकी पहचान नहीं कर लेंगे और उसका कोई उपाय नहीं निकाल लेंगे, तब तक गाय की रक्षा करना बहुत मुश्किल है।

सांस्कृतिक साम्राज्यवाद



कैलाश बुधवार
 
देश को स्वतंत्र हुए इतने वर्ष हो जाने के बाद भी अक्सर यह दुख दुहराया जाता है कि हमारी दास मानसिकता नहीं गई पर मेरा भय एक नई दासता के बारे में है। पिछले साम्राज्यवादी कंगूरे ढह गए पर हम बेसुधी में एक नए साम्राज्यवाद
के आगे घुटने टेके जा रहे हैं।
लाखो वर्ष पहले हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए एक दिशा चुनी थी। उसी ने निर्धारित किया कि उनकी संतति का जीवन कैसा होगा, आने वाली दुनिया की, हमारी दुनिया की शक्ल कैसी होगी। अपने पूर्वजों से मिली इस विरासत में हम पर भी यह दायित्व है कि हम अपनी संतति के बारे में, अगली पीढ़ियों के बारे में यह चिन्ता करें कि जो धरोहर इतिहास से हमें मिली है, आने वाली सदियों में कहीं उनसे छिन न जाए।
मैं उस युग में सांस ले रहा हूं जब मुझे बताया जा रहा है कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की, ‘विश्व-बन्धुत्व’ की, हमारे मनीषियों की कल्पना साकार हो रही है। सारी धरती सिमटकर एक कुनबा बन चली है। वैज्ञानिक क्रांति ने हर महाद्वीप को, हर देश-प्रदेश को ही नहीं, घर-घर को एक दूसरे से जोड़ दिया है। हमें एक-दूसरे के बारे में जानने की, समझने की असीम सुविधा सुलभ है।
हममें और शेष पशु-जगत में जो सबसे बड़ा अंतर है वह है विचार करने की शक्ति का, अपने को व्यक्त कर सकने की क्षमता का। अलग-अलग विचार करने की और उन विचारों को व्यक्त करने की यह विलक्षण देन जन्म देती है एक ओर आइन्सटाइन को तो दूसरी ओर इदी अमीन को। एक ओर रावण को तो दूसरी ओर तुलसीदास को और कालिदास को। और आज के संचार-साधनों ने यह संभव कर दिया है कि हर युग की, हर जगह की, हर बात हर एक तक तत्क्षण पहुंच सके।
इस मुक्ताकाश उड़ान में एक खतरा मुझे रह-रह कर चौंकाता है। बहेलिए के जाल में बिछे रंग-बिरंगे दानों का खतरा। देश को स्वतंत्र हुए इतने वर्ष हो जाने के बाद भी अक्सर यह दुख दुहराया जाता है कि हमारी दास मानसिकता नहीं गई पर मेरा भय एक नई दासता के बारे में है। पिछले साम्राज्यवादी कंगूरे ढह गए पर हम बेसुधी में एक नए साम्राज्यवाद के आगे घुटने टेके जा रहे हैं।
दिल्ली में आकाशवाणी के प्रवेश-द्वार पर महात्मा गांधी की एक उक्ति अंकित है, फ्मैं चाहूंगा कि मेरे घर की सभी खिड़कियां खुली हों ताकि हर दिशा से वहां हवा का झोंका आ सके पर मैं यह नहीं चाहूंगा कि कभी ऐसा हो जब अपनी जमीन पर से मेरे पैर उखड़ जाएं।य्
मुझे रह-रह कर यह भय सताता है कि केवल भारत में ही नहीं, केवल विकासशील देशों में ही नहीं, हमारे जैसे कितने ही लोगों को यह महसूस हो रहा है कि जैसे धरती उनके पैरों के नीचे से खिसकी जा रही हो। कुछ ऐसा लगने लगा है जैसे भूकंप के झटके हमारे पैर उखाड़ रहे हों और हम जिस जमीन पर खड़े हैं वो नीचे, कहीं गहरे धसकती जा रही हो। देखते-देखते पश्चिमीकरण का ऐसा झंझावात आंखों में धूल झोंक रहा है कि अलग-अलग समाजों की जीवन-प्रणाली की नीवें डांवाडोल हो रही हैं। भूगोल की किताबों में अनेकानेक इलाकों का नक्शा इस तेजी से बदल रहा है कि कुछ समय बाद उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाएगा।
यह उलझन बिल्कुल नई है, अभी अभी उपजी है। जानकारों को इस महामारी को समझने में अभी समय लगेगा, इसका ईलाज ढूंढना तो दूर की बात है। इससे पहले ऐसा कोई प्रकोप सभ्यताओं पर टूटा हो, ऐसे किसी ताऊन ने मानव-विविधता को अपनी जकड़ में कसा हो, इसकी कोई मिसाल नहीं। सिर्पफ एक मिसाल पर गौर करें, मनोरंजन से मिलने वाली जानकारी पर। फिल्मों ने अभी कुछ वर्ष पहले अपने निर्माण की शताब्दी पूरी की थी, रेडियो का प्रसारण आरंभ हुए अभी सौ साल भी नहीं हुए, टी.वी. और भी हाल में शुरू हुआ, और डिजिटल टीवी, उपग्रहों से आती टेलीविजन की तस्वीरों को सरहदें पार करते अभी जुम्मे-जुम्मे कुछ साल भी नहीं हुए। विशेषज्ञ अभी इन प्रतिमानों की बहस का सूत्र भी नहीं ढूंढ पाए हैं कि इन तस्वीरों का लोगों के सोचने के ढर्रे पर क्या असर होगा, कोई असर पड़ भी सकता है या नहीं।
शायद हममें से अभी कोई भी नहीं आंक सकता पर हां, विज्ञापन बनाने और बनवाने वालों को इसकी पहुंच का रहस्य पक्का पता है। इसीलिए वे इन माध्यमों पर लाखों-करोड़ों का दांव लगाने को तत्पर रहते हैं। टेलीविजन के पर्दे पर ये जो घूमते चित्र हैं, इनका जादू सर चढ़कर बोलता है। अपने यहां के आंचलिक क्षेत्रें में आदिवासी गायकों और नर्तकों की टोलियां अपनी लोकधुनों को, अपनी लोककथाओं को, जो उन्हें परंपरा में जन्म से मिली थीं, तिलांजलि देकर अब उन प्रसंगों की, उस वेशभूषा की नकल करने में अपने को गौरवान्वित मानती हैं जो उन्होंने किन्हीं बंबइया फिल्मों में देखी हों और उन मसाला फिल्मों के दृश्य प्राय: विदेशी फिल्मों की भोंडी नकल होते हैं। ऱंस जैसे विशिष्ट सांस्कृतिक देश में भी यह चिन्ता व्याप्त है कि उनकी अपनी फिल्मों को धूमिल करके, वहां भी बेवाच का नशा सर चढ़कर बोलने लगा है।
ऐसा लगता है, हम सब आज एक गहरी घाटी के मुहाने पर खड़े हैं। चारों ओर का आकाश जैसे आच्छादित है उन इकतरफा संदेशों से, छवियों से, विचारों से, जो झिलमिलाते हैं, ललचाते हैं, फुसलाते हैं और जिन्हें हम सोते-जागते, डूबते-उतराते होशो-हवास में, या अर्धचेतना में, घूंट-घूंट नशे की तरह आंखों से, कानों से, अपने गले के नीचे उतारते रहते हैं। भविष्य में जब तक यह खोज शुरू होगी, जब तक शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर गोष्ठी करेंगे कि बाजार में धड़ल्ले से धकेले जा रहे इन सौदों का असर अफीम की गोली की तरह जानलेवा हो रहा है, कि ‘ग्राम बनी हमारी वसुधा’, विचारों का एक ठूंठ बन कर रह गई है, तब तक अलग-अलग देशों-प्रदेशों, गांवों-शहरों, कस्बों-बस्तियों में रहने वाले, जन्म लेने वाले करोड़ों लोगों में कहीं कोई चिराग लेकर भी ढूंढे ही मिलेगा जो एक ही तरह की जीन्स और टी-शर्ट न पहनता हो, एक ही तरह के पाप सांग पर न झूमता हो, एक ही भाषा न बोलता हो, और एक ही तरह के ‘फास्ट फूड’ का भूखा न हो।
खुद से पूछकर देखिए, ऐसे भयावह दु:स्वप्न से सहमा कोई चैन की नींद सो सकता है या सच्चाई का सामना करने के लिए हम अपनी आंखें नहीं खोलना चाहते।
मुझे अपना ‘ग्लोबल विलेज’ बहुत प्रिय है पर इसकी कीमत क्या यह देनी होगी कि मैं अपनी इकाई मिटा लूं? मेरे अस्तित्व की अलग पहचान लुप्त हो जाए? वसुन्धरा को बांटने वाली दरारों को पाटने की दुआएं हमने, हम सबने मांगी थी पर उसका वरदान हमें क्या यह मिलेगा कि संसार की सारी विविधता पिघलाकर एक सांचे में ढाल दी जाए। और वो सांचा किसका बनाया हुआ होगा?
मनुष्य जाति की जन्मजात कुशाग्र विविधता को एक सांचे में गलाने की प्रक्रिया अंग्रेजी के एक शब्द में कही जा सकती है, धातु, कबाड़ और सारे आभूषणों को गलाकर एक टिकड़े में ठोंकने की प्रक्रिया। उसे ढालने वाला सांचा किसका होगा? उसका नया रूप-गुण कौन तय करेगा? उसे कोई भी लालच दिया जाए, उसके पीछे छिपी नीयत से एक ही खनक निकलती है – ‘मानसिक दासता’ की जंजीरों की। सारी मानव-जाति की चिरंतन प्रवाहित विचारधारा को एक कुएं में ढकेलकर उससे लाभ खींचने की नीयत। एक ऐसा लोक जहां सब एक तरह से सोचेंगे, एक ही भाषा बोलेंगे, एक ही धुन के गीत गाएंगे, एक सा खाना पकाएंगे और अपने बच्चों को एक सी लोरियां सुनाएंगे।
आज के संचार-साधनों में इतनी ताकत है कि वे सड़क कूटने वाले इंजन की तरह हर मौलिकता को, हर चिन्तन को, हर दृष्टिकोण को कूट पीस कर, तारकोल की तरह उबालकर, अपने बनाए रास्ते पर बिछा सकते हैं। हमारी धरती की दो-तिहाई आबादी जो अकिंचन है, वंचित है, अभागी है, इस मायाजाल में फंसती जा रही है। उनके फैलाए मायाजाल में, जिनके पास असीमित साधन हैं, आधुनिक तकनीक है और जो हमारा ध्यान ही नहीं लुभा रहे, हमारे मन-मस्तिष्क को अपनी मुट्ठी में कसते जा रहे हैं। इससे भी दिल दहलाने वाली आशंका यह है कि इन साधनों के सूत्र मुट्ठी भर लोगों के हाथों में हैं जो संसार भर को कठपुतली की तरह अपने इशारों पर नचाने का मंसूबा बांध रहे हैं। कल क्या प्रलयकाल के जलप्लावन की तरह सब कुछ डूब जाएगा? सर छुपाने को केवल उन्हीं की नौकाओं में जगह मिलेगी जो अपनी नौका हमसे चलवाएंगे।
इसलिए वर्तमान के जिस बिन्दु पर हम खड़े हैं, वहां हमें उस दिशा की पहचान करनी है जहां भविष्य हमें धकेल रहा है। अपनी अगली पीढ़ियों के बारे में, उनके कल के बारे में हमें प्रश्न उठाने होंगे। क्या देश-देश की विशाल आबादियां दूसरों के पेंफके विचारों के टुकड़ों पर अपना पेट पालेंगी? क्या हमारी आने वाली पीढ़ियां दूसरों से उधार मिले साहित्य और संगीत पर झूमेंगी, गाएंगी, इतराएंगी?
मुझे भय सताता है कि क्या हम और हमारे जैसे करोड़ों लोगों की आगे आने वाली पीढ़ियां वह सब कुछ खो देंगी जो संसार के हर कोने में मानवीय प्रतिभा ने हजारों वर्षों के प्रयत्नों से संजोया है। क्या वह विविधता जो हमारी धरती को सजाए है, सपाट हो जाएगी? क्या ज्वालामुखी की अग्निवर्षा में सारे रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियां, राख के मलबे में दब जाएंगी? क्या हम भी शेष पशु जगत की तरह एक ही नस्ल की शक्ल में बदलकर एक सा जीवन जिएंगे? क्या हमारी धरती पर अलग-अलग तरह के लोग नहीं बसे होंगे? क्या एक दिन ऐसा आएगा कि हम सब केवल चुइंगम चबाएंगे, Burgerking या Macdonald खाएंगे, कोका कोला पिएंगे और Lris Prizley के गीत गाएंगे?
अपने बच्चों के लिए क्या हम ऐसा संसार छोड़ेंगे, जहां सब एक ही बोली बोलें, एक से Serial देखें, एक ही भाषा का साहित्य पढ़ें और एक ही तरह से सोचें? क्या यह चिन्ता केवल निर्धन और निर्बल देशों को करनी है या यह विकराल संभावना सारे मानव समाज के सामने मुंह बाए खड़ी है? मेरी मान्यता है कि हम जहां कहीं भी हों, जो कोई भी हों, धनी-निर्धन, समृध्द-कंगाल, विकसित- अर्धविकसित, अविकसित, सभी की सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम सब सोचें कि हमारी धरती का आने वाला कल कैसा होगा। रंग-बिरंगे फूलों का नंदन कानन, या एक ऐसा चौरस खेत जिसमें केवल एक ही फसल उगा करेगी, ऐसी विधि से उपजाए भुट्टों की फसल जिनका हर दाना एक नाप का, एक रंग का और एक ही स्वाद का होगा।

गरीबी हटाने के सरकारी तरीके



डॉ. कौशल किशोर श्रीवास्तव 
 
वे जिला प्रमुख है। उनके कार्यालय के ऊपर कोई मंजिल नही है पर उन्हें ऊपर से आदेश आते रहते हैं। इस बार कुछ इस तरह का आदेश आया। गरीबी हटाओ मंत्रालय, भारत सरकार आदेश ः- आपको ज्ञात है कि 33 प्रतिशत भारत गरीब है। इससे प्रगति की रफ्तार असंतुलित हो गई है। अतः आपको आदेश दिए जाते हैं कि आपके क्षेत्र की गरीबी ढूंढ़-ढूंढ़कर हटाएं। प्रतिलिपि – लगभग 50 हजार अधिकारियों को ।
वे अपना सिर पकड़कर बैठ गए। उन्होंने गरीबी देखी ही नहीं थी अतः हटाते कै से?उनकी भूख पेट के बजाय जूबान पर और दोनों आंखों में रहती थी। वे देश की भूख के शुक्रगुजार थे जिसकी वजह से उन्होंने कालीन, क्राकरी, हीरो के गहने और बंगले इत्यादि खरीदे। मुल्क की भूख के दान के फलस्वरूप गरीबी हटाने के लिए इस जिले को 17 अरब रुपयों की भीख प्राप्त हुई थी। उसके उपयोग से सरकार के दरबारियों ने एक कार्यशाला का आयोजन किया। ये गरीबी हटाने के तरफ पहला कदम था। इस कार्यशाला में हर विभाग को कम से कम 10 प्रतिशत गरीबी हटाने का लक्ष्य आवंटित कर दिया गया जिससे कि 15 विभाग मिलकर कम से कम 150 प्रतिशत गरीबी हटा सकें।
लगभग एक लाख रूपये खर्च करने के बाद सदन इस नतीजें पर पहुंचा कि जिले की गरीबी हटाने के लिए एक शानदार पार्क भी बनवाया जाये। आखिरकार खाना खाने के बाद गरीब लोगों को घूमने के लिए एक पार्क भी होना चाहिए। एक अरब रूपयों से बनने वाले पार्क से गरीबी का 1/15 वां हिस्सा कम हो जाएगा।
”गरीबी हटाओ” बजट से प्रशासनिक अधिकारी का एक भव्य कार्यालय बनवाया गया जिसमें महंगे कालीन बिछाए गए एवं प्रशीतक यंत्र लगवाए गए।
सामान्य प्रशासन विभाग के पास एक सांस्कृतिक समूह था जिनके कूल्हे मटकाने से लोग महान पुरूषों के आदर्श लेते थे, नसबंदी करा लेते थे और जितने कार्यक्रम है वह सब करवा लेते थे। उनके नृत्य और गायन से गरीबी अब उठकर चली गई। गरीबी हटाने के लिए कठपुतली का कार्यक्रम रखा गया जिससे गरीबी शहर छोड़कर भागने लगी।
”गरीबी हटाओ” के लिए एक अखिल जिला कवि सम्मेलन सह मुशायरा, सह कव्वाली और सह गाने का कार्यक्रम आयोजित किया गया। उन कवियों एवं कलाकारों ने गरीबी हटाने के लिए वीर रस, शृंगार रस और हास्य रस की रचनाएं प्रस्तुत की। गरीबी अपना मजाक न सह सकी और दूर हो गई।
”गरीबी हटाओ” कार्यक्रम में प्रशिक्षण लेने के लिए अधिकारियों का एक दल विदेश भ्रमण को निकल गया। वापस लौटने पर एक प्रभावशाली रिपोर्ट शासन को भेजी गई। इनमें एक अधिकारी को गरीबी हटाने में महत्वपूर्ण कार्य करने पर राष्ट्रपति जी द्वारा पुरस्कृत भी किया गया। अधिकारी जी ने रिसर्च की थी कि भारत में गरीबी का कारण विदेश है।
एक ‘गरीबी हटा बलमा’ नामक फिल्म बनाई गई जिसको प्रदर्शन से पूर्व ही पुरस्कृत कर दिया गया। उसके नायक को गरीबों का सशक्त अभिनय के लिए पद्मश्री भी दी गई। दरअसल, उसके चेहरे पर वेदना के भाव लाने के लिए उसे तंग जूते पहना दिए गए थे।
यूं तो हमारी फिल्में दिन में तीन बार हर टॉकीज में गरीबी हटाती है। अमीर लड़की को गांव का लफंगा प्यार करता है फिर लड़की भी प्यार करने लगती हौ। अमीरी उसके बाप का रूप धरे दोनों के बीच में आ जाती है अंत में नायक उससे बड़ा तस्कर बनकर दर्शकों की जब से व्हाया टॉकीज पैसे खींच लेता है। दर्शक और गरीब हो जाते हैं।
गरीबी हटाने के आंकड़ें दिन में तीन बार प्रसारित होने लगे कुछ ऐसे गरीबों का साक्षात्कार प्रसारित किया गया जिनकी गरीबी कार्यक्रम लागू होने के तत्काल पश्चात चली गई थी। एक परिवार के छोटे बच्चे ने उसे पहचान लिया और बोला मम्मी ये अंकल तो उस साबुन के विज्ञापन में भी आते हैं जो आधा कपड़ा सफेद और आधा कपड़ा मंटमैला धोता है।
बड़े भाई ने कहा और दूसरा वाला ‘सास बहू’ सीरियल में राजू बनता है। मां ने कहा ये तिसरा वाला दस फेरों वाले कभी खत्म न होने वाले सीरियल में कभी देवर और कभी जेठ बन जाता है।
दादी बोली और जो साक्षात्कार ले रहा है वह धार्मिक चैनल में उपदेश देते रहता है। कुछ असंतुष्ट यानि बुध्दिजीवियों का कहना है कि जितना पैसा गरीबी हटाओं कार्यक्रम में बर्बाद किया गया उतना यदि गरीबों में सीधे ही बांट दिया जाता तो हर गरीब बंगला, कार और पांच लाख रूपये के बैलेंस वाला अमीर बन जाता। इसके विपरीत माया की तरह बजट खर्च होता जा रहा है और गरीबी ग्रहण की तरह स्थिर होती जा रही है।
विदेशी लोग नेकी कर दरिया में डालते नहीं है पर नेकी कर नापते हैं। दान देकर वे यह भी देखते हैं कि उसका उचित उपयोग हुआ की नहीं इसे अंग्रेजी में ‘मानीटरिंग’ कहते हैं। ऐसा ही एक समूह गरीबी हटाओ कार्यक्रम का मूल्यांकन करने सीधा गांवों में चला गया। उन्होंने पाया कि एक ग्रामीण वेसा ही अनपढ़ अज्ञानी और पहले से अधिक गरीब हो गया है। बाद में मुख्यालय पर आकर उन्होंने खर्चों की मदें देखी। उन्हें आश्चर्य हुआ कि गरीबी दूर करने के नाम पर अधिकारियों ने विदेश यात्राएं की हैं, कालीनें खरीदा हैं, गायन एवं नृत्य किए है, कवि सम्मेलन किए गए है, कठपुतलियों के खेल किए गए हैं, पार्क बनवाए गए हैं और दौड़ने के ट्रैक बनवाए गए हैं।
* लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

सबसे बड़ा डंडा खुद का चरित्र है…..क़ानून नहीं


 
राजीव थेप्रा
हम रोज-ब-रोज तरह-तरह के अपराधों के बारे में पढ़ते हैं,सुनते हैं और साथ ही बड़े लोगों के अपराधों के बारे या अपराधियों को सज़ा देने के लिए तरह-तरह के आयोग या कमीशन बैठाए जाने के बारे सुना करते हैं,मगर बाद में यह भी देखते हैं कि दरअसल कुछ भी होता जाता नहीं है और मैं आपको सच बताता हूँ दोस्तों कि आगे भी कुछ होने जाने को नहीं है या कहूँ कि कभी कुछ होगा ही नहीं……
दोस्तों,ऐसा है कि जब से समाज बना है और अपराध घटने शुरू हुए हैं,ठीक तभी से क़ानून नाम की चीज़ भी बनी हुई है,सज़ाएँ भी होती हैं और सदा-सदा लाखों-करोड़ों लोग विश्व-भर की जेलों में ठूंसे भी रहा करते है मगर धरती से अपराध में कोई कमी नहीं आती दिखाई देती,बल्कि यह तो बढ़ते ही जाते हैं….क्या कभी हमने यह सोचा भी है कि क्यूँ….ऐसा क्यूँ होता है…..ऐसा क्यूँ हो रहा है….??और होता ही जाता है !!
ऐसा इसलिए है दोस्तों कि आदमी नाम के जीव में उसको अंकुश में रखने वाली लाठी उसके बाहर नहीं बल्कि उसके खुद के भीतर ही हुआ करती है और इस करके जो भी संस्कार वो ग्रहण करता है उसी के अनुसार आचरण किया करता है ,अगर उसका संस्कार उसे कुछ करने (मतलब कोई अपराध करने)से नहीं रोकता तो दुनिया का कोई क़ानून या किसी भी तरह की सज़ा का डर भी उसे वह अपराध करने से नहीं रोक सकता है !!
सज़ा का भय अगर किसी को कुछ करने से रोक पाता होता तो दुनिया कब की अपराध से खाली हो गयी होती !!और अगर ऐसा नहीं हो पा रहा है तो इसका अर्थ यही हुआ कि अपराधों के रोकथाम के प्रति हमारी जो सोच है.बल्कि अपराध की प्रवृति की बाबत जो हमारा नजरिया है,उसीमें कोई खोट है और खोट यही है कि हम बजाय अपराध की अपनी मनोवृति को पहचानने के,होने वाले अपराधों की रोकथाम के उपाय करने लग जाते हैं,जो दरअसल कभी भी कारगर सिद्ध नहीं होते और हो भी नहीं सकते क्यूंकि यह हज़ार फीसदी सच है कि अपराध भय से कभी नहीं रुकते क्यूंकि अपराध से होने वाले लाभ की मात्रा हमेशा भय की मात्रा से ज्यादा हुआ करती है तिस पर भी मज़ा यह कि ज्यादातर अपराधी या तो अपने फंसने का भय ही नहीं होता या फिर एन-केन-प्रकारेण छूट जाने का अंदाजा होता है !!
अपराध होने का सबसे बड़ा कारण शिक्षा-व्यवस्था की कमी या उसमें किसी खोट का होना है,बाकी आदमी का खुद का अंतर्मन तो है ही,किसी जमाने में शिक्षा के अंतर्गत नैतिक होने की शिक्षा भी दी जाया करती थी,और शिक्षा का अर्थ रोजगार कभी नहीं रहा था शिक्षा का अर्थ महज यह था कि बच्चा अपना परिवेश-परम्परा -संस्कार और इतिहास सीखे साथ ही सही अर्थों में एक इंसान बने (और यह व्यवस्था संयोगवशात पूर्व की दें ही थी )मगर इस नैतिक-शिक्षा के दरवाज़े कब बच्चों के लिए बंद हो गए और कब शिक्षा का अर्थ महज रोजगार प्राप्ति का एक साधन-भर हो गया !!बढती आबादी और उससे जुड़े रोजगार की कमी ,रोजगार के लिए तरह-तरह की मारामारी और इस मारामारी में जीत हासिल करने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडे और उसी से पैदा हुई एक अपराधिक व्यवस्था !!
और इस संचार-युग में मीडिया के द्वारा सूचना प्रसारित करने की तीव्रता ने तरह-तरह के साधनों को हासिल करने की एक ऐसी होड़ को जन्म दिया कि हर साधन का मालिक हर कोई होना चाहने लगा,भले ही उस साधन को हासिल करने का कोई वाजिब साधन उसके पास हो ही नहीं…..हर साधन एक स्टेटस…एक निहायत ही जरूरी चीज़ बन गया सबके लिए…….और इसका अंतिम परिणाम आज यह है कि आदमी के भोजन-वस्त्र से कई-कई गुना का खर्च उसके इन्हीं साधनों को हासिल करने का खर्च है,वरना आज भी अगर घर में आने वाले राशन को देखें तो इसमें होने वाले खर्च का अनुपात बाकी के खर्चों की अपेक्षा मामूली ही प्रतीत होगा !!
और इस एक गैर-जरूरी होड़ ने हर आदमी को सदा-सदा के लिए अपराधी बना डाला है,भले ही कोई छोटा हो या कोई बड़ा…..मगर हरेक आदमी अपराधी अवश्य है…..बाकी इसके अलावा किये जाने वाले बड़े घोटाले और बड़े अपराध आदमी की चरित्रहीनता के ही घ्योतक हैं…..आदमी अगर समाज के प्रति-देश-के प्रति या किसी भी “मॉस”के प्रति कोई अपराध करता है तो यही उसका संस्कार है,जिसे कोई क़ानून नहीं बदल सकता….किसी भी देश या समाज में अगर बड़े लोग बड़े-से-बड़ा अपराध करके छुट्टे सांड की तरह घूमा करते होओं,वहां अन्य लोग भी अपराधों की और अग्रसर हुआ करते हैं…..क्यूंकि यह एक तरह की प्रतिक्रिया होती है कि “अरे साले !!तुम खुद तो ऐसा करते हो,और हमें रोकते हो……??तुम्हारी तो ऐसी की तैसी…..!!”…..यह नक्सलवाद आदि इसी सब की प्रतिक्रियास्वरूप है……कि ये लोग भी ऐसा हो सोचते हैं……कि सब साले राजनीतिक तो अंधे-लालची-धंधेबाज-कर्रप्ट-और जनता के शोषक हैं……और ये सब साले हम पर शासन करते हैं,जिन्हें चपरासी होने का अधिकार नहीं……!!”तो यह है जनता के एक हिस्से की सोच…..और इस सोच में सच्चाई भी है…..इसलिए इस प्रकार के अपराधों को भी नहीं रोका जा सकता क्यूंकि जो आपकी नज़र में एक अपराध है….वही ऐसा करनेवालों की नज़र में गलत और भ्रष्ट-शासन के खिलाफ एक आवाज़……एक कदम है !!
तो दोस्तों क़ानून कभी भी वो डंडा रहा ही नहीं,जिसने अपराध की कोई रोकथाम की हो…..असल डंडा तो हमारा खुद का चरित्र ही है,और इस चरित्र का अर्थ कहीं-न-कहीं हमारी आत्मा से है……अगर वो हममें कहीं भी है…..तो अपराध रुक सकते हैं…..समाज सुन्दरता से परिपूर्ण हो सकता है……और अगर वो ही नहीं है तो आप क़ानून का डंडा कितना ही क्यूँ ना भांजे जाओ……मगर हवा में लाठी भांजने से सिर्फ अपनी ऊर्जा ही नष्ट होती है…..हासिल कुछ नहीं होता……!!

असमानता की आजादी का जश्‍न!



डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
15 अगस्त, 2011 को हम आजादी की 65वीं सालगिरह मनाने जा रहे भारत में कौन कितना-कितना और किस-किस बात के लिये आजाद है? यह बात अब आम व्यक्ति भी समझने लगा है| इसके बावजूद भी हम बड़े फक्र से देशभर में आजादी का जश्‍न मनाते हैं| हर वर्ष आजादी के जश्‍न पर करोड़ों रुपये फूंकते आये हैं| कॉंग्रेस द्वारा भारत के राष्ट्रपिता घोषित किये गये मोहन दास कर्मचन्द गॉंधी के नेतृत्व में हम हजारों लाखों अनाम शहीदों को नमन करते हैं और अंग्रेजों की दासता से मिली मुक्ति को याद करके खुश होते हैं| लेकिन देश की जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयॉं करती है|
संविधान निर्माता एवं भारत रत्न डॉ. भीमराव अम्बेड़कर ने कहा था कि यदि मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी के वंशजों को भारत की सत्ता सौंपी गयी तो इस देश के दबे-कुचले दमित, पिछड़े, दलित, आदिवासी और स्त्रियॉं ब्रिटिश गुलामी से आजादी मिलने के बाद भी मोहन दास कर्मचन्द गॉंधी के वंशजों के गुलाम ही बने रहेंगे| डॉ. अम्बेड़कर के चिन्तन को पढने से पता चलता है कि उनका मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी के वंशजों या कॉंग्रेस का सीधे विरोध करना मन्तव्य कतई भी नहीं था, अपितु उनका तात्पर्य तत्कालीन सामन्ती एवं वर्गभेद करने वाली मानसिकता का विरोध करना था, जिसे डॉ. अम्बेडकर के अनुसार गॉंधी का खुला समर्थन था, या यों कहा जाये कि ये ही ताकतें उस समय गॉंधी को धन उपलब्ध करवाती थी| दुर्भाग्य से उस समय डॉ. अम्बेड़कर की इस टिप्पणी को केवल दलितों के समर्थन में समझकर गॉंधीवादी मीडिया ने कोई महत्व नहीं दिया था, बल्कि इस मॉंग का पुरजोर विरोध भी किया था| जबकि डॉ. अम्बेड़कर ने इस देश के बहुसंख्यक दबे-कुचले लोगों की आवाज को ब्रिटिश सत्ता के समक्ष उठाने का साहसिक प्रयास किया था| जिसे अन्तत: तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमन्त्री और मोहम्मद अली जिन्ना के समर्थन के बावजूद मोहन दास कर्मचन्द गॉंधी के विरोध के कारण स्वीकार नहीं किया जा सका|
आज डॉ. अम्बेड़कर की उक्त बात हर क्षेत्र में सच सिद्ध हो रही है| इस देश पर काले अंग्रेजों तथा कुछेक मठाधीशों का कब्जा हो चुका है, जबकि आम जनता बुरी तरह से कराह रही है| मात्र मंहगाई ही नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, मिलावट, कमीशनखोरी, भेदभाव, वर्गभेद, गैर-बराबरी, अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न, बलात्कार, लूट, डकैती आदि अपराध लगातार बढ रहे हैं| जनता को बहुत जरूरी (मूलभूत) सुविधाओं का मिलना तो दूर उसके राशन कार्ड, ड्राईविंग लाईसेंस, मूल निवास एवं जाति प्रमाण-पत्र जैसे जरूरी दस्तावेज भी बिना रिश्‍वत दिये नहीं बनते हैं| आम लोगों को पीने को नल का या कुए का पानी उपलब्ध नहीं है, जबकि राजनेताओं एवं जनता के नौकरों (लोक सेवक-जिन्हें सरकारी अफसर कहा जाता है) के लिये 12 रुपये लीटर का बोतलबन्द पानी उपलब्ध है| रेलवे स्टेशन पर यात्रियों को बीड़ी-सिगरेट पीने के जुर्म में दण्डित किया जाता है, जबकि वातानुकूलित कक्षों में बैठकर सिगरेट तथा शराब पीने वाले रेल अफसरों के विरुद्ध कोई कार्यवाही करने वाला कोई नहीं है|
अफसरों द्वारा कोई अपराध किया जाता है तो सबसे पहले तो उसे (अपराध को) उनके ही साथी वरिष्ठ अफसरों द्वारा दबाने का भरसक प्रयास किया जाता है और यदि मीडिया या समाज सेवी संगठनों का अधिक दबाव पड़ता है तो अधिक से अधिक छोटी-मोटी अनुशासनिक कार्यवाही करके मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है, जबकि उसी प्रकृति के मामले में कोई आम व्यक्ति भूलवश भी फंस जाये तो उसे कई बरस के लिये जेल में डाल दिया जाता है| यह मनमानी तो तब चल रही है, जबकि हमारे संविधान में साफ शब्दों में लिखा हुआ है कि इस देश में सभी लोगों को कानून के समक्ष एक समान समझा जायेगा और सभी लोगों को कानून का एक समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा| क्या हम इसी असमानता की आजादी का जश्‍न मनाने जा रहे हैं?

जानिए, क्यों है शरीर के साथ परछाईं का संबंध?


हर इंसान, प्राणियों, वनस्पतियों या वस्तुओं आदि के साथ एक रोचक बात जुड़ी होती है। वह है – परछाई का प्रकट होना और लुप्त हो जाना। जिसे देख सकते हैं, किंतु पकड़ा नहीं जा सकता। विज्ञान की नजर से यह साधारण बात है, जो रोशनी के आने-जाने से घटती है। किंतु धर्मशास्त्रों के मुताबिक भी इसका संबंध सूर्य से ही जुड़ा एक प्रसंग है। जिसके चलते हर देह से छाया का संबंध जुड़ा। जानते हैं यह प्रसंग -
भविष्य पुराण के मुताबिक दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री रुपा का विवाह सूर्यदेव से किया। उनकी यमुना और यम नाम की दो संतान हुई। किंतु सूर्य के तेज के कारण रूपा उनको देख नहीं पाती। साथ ही उसका शरीर भी जल कर काला पड़ गया। तब इससे बचने के लिए रुपा ने अपनी छाया से ही अपने ही समान स्त्री पैदा की और उसे अपने पति सूर्य के साथ रहने व यह भेद न खोलने का कहकर अपनी दोनों संतान को छोड़कर चली गई।
सूर्य देव और छाया से दो संतानें शनि और तपती ने जन्म लिया। किंतु छाया रूपा की संतानों से ज्यादा अपनी संतान को चाहती थी। इसी कारण विवाद के चलते यमुना और तपती एक-दूसरे के शाम से नदी बन गई। यही नही यम से विवाद होने पर यम ने छाया को पहचान लिया, तब छाया ने भी यम को जगत के प्राणियों के प्राण हरने के क्रूर कार्य करने और जमीन पर पैर रखने ही गलने का शाप दिया।
विवाद के दौरान जब सूर्यदेव वहां पहुंचे तो यम ने माता छाया के उपेक्षा और भेदभाव से भरे व्यवहार और श्राप देने की शिकायत की। साथ ही यह भेद भी खोल दिया कि वह उनकी असली मां नहीं बल्कि माता की छाया है।
सूर्यदेव ने सारी बात सुनकर यम को पैर गलने के श्राप से मुक्ति और ब्रह्मदेव द्वारा लोकपाल का पद प्राप्त होने का वर दिया। साथ ही बहन यमुना और तपती को क्रमश: गंगा और नर्मदा के समान पावन होने का वर दिया। किंतु छाया द्वेषपूर्ण व्यवहार के लिये यह मर्यादा नियत की वह अब से हर सांसारिक देह में स्थित रहेगी।
माना जाता है कि तब से ही हर देह के साथ छाया का संबंध है और सूर्यदेव की रोशनी या सूर्य रूप अग्रि से जुड़े हर स्त्रोत से निकली रोशनी के साथ छाया प्रकट होती है।