कमरे में कैद इन ग्रामीणों की बदहाली और प्यास की तस्वीर

यह है उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के ग्राम बैरपुर (भाट) का यह विडियो आज भी दुनिया के बाकि देशो की तुलना में भारत के पीछे होने की तस्वीर बाया कर रहा है  भारत के ५० साल स्वर्णिम दौर के बाद भी इस एरिया की यह बदहाली है की लोगो को यह तक नहीं पता है की सरकार द्वारा उन्हें क्या-क्या सुविधाए देने के लिए किस-किस तरह की योजनाये लागु की गई है . आज भी यहाँ सरकारी डीएम, एस. पि. तक नहीं आते देखने की यहाँ की क्या स्तिथि है. यहाँ तक की यहाँ के लोग यह भी नहीं जानते की यह सब किसकी गलती की सजा भोग रहे है. आज भी यह आदिवासी-ग्रामीण जंगलो में पशुवत जिंदगी जी रहे है, इन सब के इस हाल का कौन दोषी है ? , शायद कोई हां कहने को तैयार न हो, पर यह कोई झूट भी नहीं की सरकारी कर्मचरियों की निक्कमी कार्यवाही की सजा यहाँ की नै पीढ़ी झेल रही है किसे यह भी नहीं पता की वह भी एक इंसान है, जो शहरो में रहते है उन्ही की तरह. क्या इन्हें भी सरकार की दी हुई साडी सुविधाओ का लाभ नहीं मिलना चाहिए. मेरी आवाज अगर कोई सुन सकता है तो कृपया इनके लिए कुछ करने के लिए सुझाव डे मेरे इमेल पर. मुझे लगता है की कोई-न-कोई  बुद्धिजीवी मुझे इनके लिए कुछ करने के लिए राय/सुझाव जरूर देगा ? 

शक्ति आनंद के कमरे में कैद इन ग्रामीणों की बदहाली और प्यास की तस्वीर "क्या बात है"

३०० साल में ही धरती को विनास के कगार पर ला पटका ।

देश कि माटी, देश का जल/हवा देश का फल सरस बने प्रभु सरस बने/देश के घर और देश के घाट देश के वन और देश के बाट/सरल बने प्रभु सरल बने देश के तन और देश देश का मन/देश के घर के भाई-बहन विमल बने प्रभु विमल बने

विश्वविख्यात रविंद्रनाथ ठाकुर रचित और विख्यात हिंदी कवि भवानी प्रसाद मिश्र द्वारा अनूदित यह गीत आज बरबस याद आता है । इस सच्चाई को सभी मान रहे है कि धरती खतरे में है । मानव सभ्यता धीरे-धीरे गर्त कि ओर धकेली जा रही है । लोग इस आशंका से डरे हुए है कि यदि धधकती धरती को रोका नहीं गया, तो किसी दिन प्रलय आ जायेगा । लोगो को मालूम है कि धरती को बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए११ सितम्बर १९९७ के जापान के शहर टोकियो में हुए ऐसे ही सम्मेलन में यह रूपरेखा बनी थीवाकई ऐसे किसी मसले पर सहमति बना पाना मुश्किल है और यदि बन भी गई, तो उससे धरती बच पायेगी, इसमे संधेह हैक्योंकि जब पानी गले तक पहुचने लगता है, तब उससे बचने के लिए हमारे वैज्ञानिक नये-नये शिगूफे उछालते है बड़े-बड़े सम्मेलन होते है । कभी रियो-दा-जनीरो से पृथ्वी बचाओ कि आवाज उठती है, तो कभी कियोटो में जलवायु परिवर्तन को रोकने कि संधि होती है, तो कभी बाली से इसे लागु करने के लिए एक्शन प्लान जरी होता है । औधोगिकरण से पहले की दुनिया औधोगिकरण न हुआ होता, तो ग्लोबल वार्मिंग भी न हुई होतो । कियोटो में भी वैज्ञानिको ने यह रेखांकित किया था कि दुनिया को महाविनाश से बचने के लिए ग्लोबल वार्मिंग का अधिकतम स्तर पूर्व औधौगिकरण युग से दो डिग्री सेल्सियस अधिक तक ही रखना होगा । इस स्तर पर भी दुनिया १९९० में पहुच गई थी । आज वातावरण में कार्बन-दी-ओक्सएड कि मात्रा ४० प्रतिशत बढ़ चुकी है, जो धरती को रोज-ब-रोज गरमाने के लिए खतरनाक स्तिथि कि ओर बढ़ रही है । इसलिए वर्ष २०५० तक हमें इसमे ५० प्रतीशत तक कि कटौती करनी होगी । ग्लोबल वार्मिंग यानि ग्रीन हाउस गैसों के अतिसय उत्सर्जन के लिए पश्चिम के उन्नत देश मुख्यतया जिम्मेदार रहे हैग्लोबल वार्मिंग से निजात पाने के लिए वैज्ञानिको ने यह सुझाव दिया था कि कार्बन-दी-ओक्स्एड, कार्बन मोनो ओक्स्एड, मीथेन, नैत्रेश ओक्स्एड जैसे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया जाए । लेकिन इन सब का सम्बन्ध हमारे आधुनिक विकास से है । हम जीतने ही आगे बढ़ेंगे, जीतने विलास वस्तुओ के गुलाम होते जायेंगे कार्बन उत्सर्जन बदना ही बढना है। आप किसी को कहिये, तुम स्कूटर छोडकर साइकिल पर आ जाओ, क्या वह मानेगा ? हर आदमी स्कूटर से आगे कार के ही सपने देखता है । यही समाज का चलन है पश्चिम देश किस एक चीज पर इतराते है, और जिसकी वजह से उन्होंने बाकि दुनिया बढ़त बनायीं, वह औधौगिकीकरण हैऔधौगिकीकरण ने जो समाज बनाया वह इन सुविधाओ के बगैर नहीं रह सकताभरतीय हजारों वर्षों से कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था के साथ बढ़ाती रही, कभी ऐसा संकट नहीं आया कियोकि हम प्रकृति के विभिन्न उत्पादनों कि उसी तरह पूजा करते रहे है, जैसे इश्वर कि एक बार अपने प्रकृति को अपने से बड़ा समझ लिया, तो आप उसका शोषण कर ही नहीं सकते । जब कि उसे अपने भोग विलास कि दासी मानते ही आप उसका दोहन शुरू कर देते है । इसलिए आपकी विलासिता के लिए प्रकृति के दोहन पर आधारित औधौगिक सभ्यता में ३०० साल में ही धरती को विनास के कगार पर ला पटका


कियों बनता है कोई नक्सली ?

कियों बनता है कोई नक्सली ?
 नक्सलियों की आपसी संजाल की बात करे तो देश के १५ राज्यों में बहुत ज्यादा  सक्रिय है. उत्तर प्रदेश भी इससे बहुत ज्यादा अछुता नहीं है और यहाँ चंदौली-मिर्ज़ापुर के अलावा सोनभद्र सबसे अधिक प्रभावी है. इसके पीछे कार्ड है की सोनभद्र की सीमा बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश जैसे नक्सल प्रभावित राज्यों को कहती है, दंतेवाडा में हुई नक्सली घटना के बाद यहाँ भी चौकसी बढ़ा दी गई है और उ.प्र. पुलिस के नक्सल उन्मूलन प्रकोष्ट की हदे भी और ज्यादा व्यापक कर दी गयी है. सघन जंगलो में काम्बिंग और सूचना तंत्र के साथ तालमेल अब यहाँ जोर की बात हो गई है. बावजूद इसके प्रशासन कोई खतरा भी नहीं लेना चाहता. सोनभद्र सघन जंगलो में पुलिसे और पी एस सी के जवान अब आधुनिक हथियारों से लैस होकर और समय-समय पर नक्सलियों के विरुद्ध कार्यवाही करते रहते है. नक्सल समस्या आज राष्ट्रीय समस्या है इससे निपटने का कार्य सिर्फ केंद्र सरकार का ही नहीं बल्कि प्रभावित राज्य सरकारों का भी है. कुछ राज्यों ने सुरक्षा और अन्य प्रभावी योजनाओ के लिए तमाम कदम उठाये है लेकिन उ.प्र. सरकार अपने राज्य के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जिले सोनभद्र में ऐसी कोई कवायद शुरू करने के मुड़ में नहीं है. १९५० के बाद रिहंद बांध बनने के उपरांत सोनभद्र को उर्जांचल के रूप में विकसित किया जाने लगा साथ ही औद्योगिक विकास को लेकर कदम भी उठाये गए. ओबरा, अनपरा ताप विद्युत् परियोजना तथा एन टी पि सी, हिंडाल्को, जे. पी. सीमेंट. लैंको पावर सहित तमाम औद्योगिक प्रतिष्ठान सोनभद्र में स्थापित है बावजूद इसके गरीब आदिवासियों की जमीं अधिग्रहण करनी के बाद भी उनसे किये गए वायदे के अनुसार कुछ भी नहीं मिला. लिहाज़ा विश्थापित / आदिवासी आज अपने हक़ के लिए किसी भी हद तक जाने की बात कर रहा है. उ. प्र. सरकार नक्शल प्रभावित जिला सोनभद्र आदिवासियों को लेकर कितना संजीदा है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है की अनपरा "सी" बनने के लिए जिन आदिवासियों ने अपनी भूमि दी उन्हें नौकरी नहीं मिली और उस जमीन को लैंको पावर प्राइवेट लिमिटेड को लीज पर डे दी गयी. मिडिया द्वारा पूछे जाने पर उ.प्र. पावर कारपोरेशन के अधिकारी इसे शासनादेश बताते है. कुल मिलकर इस कहानी में कुछ ऐसे कटु अध्याय है जिसे देख कर देश के लोकतान्त्रिक स्वरुप को भी एक बार  शर्म आएगी.

बदहाल लोक कलाकार

बदहाल लोक कलाकार
भारत के समृद्ध सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को और भी ज्यादा मात्र में पल्लवित और पुष्पित करने में लोक कलाओ की एक महती भूमिका रही है। इसका कारन यहाँ की समरित सांस्कृतिक विरासत और सैकड़ो की संख्या में जातियों और जनजातियो का यहाँ अवस्थित होना सबसे बड़ी वजह है। लेकिन आज सोनभद्र की घसिया जनजाति भारत के सामाजिक बटवारे और आमिर और गरीब के बिच बदती खाई का एक जीवंत दृश्य बन गई है। सोनभद्र और इसके अस-पास के एरिया  में करीब ५० से ५५ हजार की संख्या में रहने वाले घसिया जनजाति छोटे-छोटे कबीलों और गाव में स्थाई-अस्थाई रूप से निवास करते हैं. जिसके लोक कला में "करमा" नृत्य एक विशेष स्थान रखता है. यह नृत्य "करमा" देवता को समर्पित है. इन्होने इस नृत्य का नज़ारा देश के विभिन्न विभूतियों  के सामने पेश किया है. लेकिन आज ये जनजाति हासिये की जिंदगी जीने को मजबूर है और इनके पास फक्काकाशी के अलावा कोई विकल्प नहीं है. 
आईसी सामाजिक विडम्बना केवल भारत वर्ष में ही संभावित है जहा लोक कलाकारों को सिर्फ मरने के लिए छोड़ दिया गया है. आज घसिया जनजाति के लोग अपने हजारो नौनिहालो को अपनी आँखों के सामने मरते हुए देख चुके है. जिसकी जीती जगती तवीर सोनभद्र की वह शिलापत्तिका है जिसे गैर सरकारी सस्ता ने कुपोसड और भूख से मरे हुए बच्चो की याद में लगवाया है. यह शिला-पट्टिका जहा एक तरफ भूख से मरे हुए बच्चो को याद करके समाज के लिए एक नाजिर पेश कर रही है. वही दूसरी तरफ सामाजिक दुरवेयवास्था को चिड़ा रहा है. 
शासन और प्रशासन स्तर की बात करे तो वह यह मानने को कत्तई तैयार नहीं की इनकी मौते भूख से हुई है. बावजूद इसके यह बात जरूर कहते है की सरकार इनके पुनर्वास के लिए विचार कर रही है और समय-समय पर कार्यक्रमों के द्वारा मंच भी डे रही है. इनकी यह उपलब्धि और प्रयास रेगिस्तान में एक लोटा पानी के बराबर है. 
"वैध मारा, रोगी मारा, मारा सकल संसार"
"एक कबीरा न मारा जाके नाम आधार" 
कुछ ऐसी ही तस्वीर सोनभद्र की घसिया जनजाति की है जो न सिर्फ अपनों की लाशे ढो रहे है और अपनी संस्कृति को मरते हुए देख रहे है.
शक्ति आनंद "क्या बात है "  


किसने पता बता दिया__?

भुला कर दुनिया के सारे गमो और जिम्मेदारियों को सोया था अपनी कब्र में मैं, यहाँ भी सताने आ गए हमारे चाहने वाले किसने पता बता दिया__?


कैसे बना भारत का हिस्सा हैदराबाद ?

कैसे बना भारत का हिस्सा हैदराबाद ?
१५ अगस्त १९४७ को जब आजादी मिली, तो शायद सरदार को इस बात का अनुमान हो गे था कि उनके पास बहुत वक़्त नहीं बचा है। गृह मंत्री के रूप में उनके सर के ऊपर समस्याओ का अम्बार लगा था। अंग्रेजो ने ऐसे-ऐसे खेल रचे थे कि भारत के गृह मंत्री को एक मिनट कि फुर्सत न मिले, लेकिन सरदार के मस्तिष्क में अपने लक्ष्य को हासिल करने कि पक्की कार्ययोजना थी और अपने सहयोगी वि0 पि0 मेनन के साथ मिलकर वे उसे पूरा कर रहे थे । आजादी के बाद देश में ऐसे कई रजवाड़े थे, जो अपने को भारत से अलग रखना चाहते थे। इन राजाओ को अंग्रेजो का नैतिक सम्रथन भी हासिल था। मुल्क का बटवारा हो चूका था और देश के कई इलाको में दंगे बड़े पैमाने पर भड़क गए थे, लेकिन सरदार पटेल ने देश कि एकता और अखंडता के लिए अपना सब कुछ दाव पे लगा दिया। जब १५ दिसम्बर १९५० उन्होंने शरीर त्यागा, तब आने वाली पीढियों के लिए वह एक ऐसा देश छोड़कर गए थे, जो पूरी तरह से एक राजनीतिक इकाई था। दुर्भाग्य यह है कि अज के नेता अपनी अदुर्दार्शिता के चलते उस देश को तरह-तरह के टुकडो में बटने में लगे हुए है।

हैदराबाद को स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनाने के लिए सरदार पटेल को बहुत सरे पापड़ बेलने पड़े थे। अंग्रेजो ने हैदराबाद के निजाम, उश्मान अली खान, को पता नहीं क्यों, भरोसा दिला दिया था कि वे उनकी मर्ज़ी का सम्मान करेंगे। किसी ज़माने में इंग्लैण्ड के सम्राट ने निजाम को अपना सबसे वफादार सहयोगी कह दिया था। अत: १९४७ के आस-पास जो लोग ब्रिटिश सत्ता के करीबी थे, वे निजाम कि भलाई के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल लार्ड मौन्ट बेटन भी उसी जमात में थे। वह निजाम से खुद ही बात-चित करना चाहते थे। सरदार पटेल ने उनको छुट दे रखी थी। लेकिन इस एक शर्त पर कि हैदराबाद का मसला सिर्फ भारत का मामला है, उसमे किसी बाहरी देश कि दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं कि जाएगी। उनके इस बयान में इंग्लैण्ड व पाकिस्तान, दोनों के लिए चेतावनी निहित थी।
हैदराबाद के निजाम भी पहुचे हुए थे, उन्होंने एक ब्रिटिश वकील कि सेवा ले रखी थी, जिसकी पहुच लन्दन से लेकर दिल्ली दरबार तक थी। सर वाल्टर मोक्तान नाम के इस वकील ने कई महीनो तक चीजो को घालमेल कि स्तिति में रखा। उसकी सलाह पर ही निजाम ने भारत में पूर्ण विलय कि बात न करके सहयोग के एक समझौते पर दस्तखत करने कि पेशकश कि थी। लार्ड माउन्ट बेटन भी इस पछ में थे। पर सरदार ने साफ मन कर दिया।
इस बिच निजाम पाकिस्तान में शामिल होने कि कोशिश भी कर रहे थे। सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि अगर निजाम इस बात कि गारंटी दे कि वह पाकिस्तान में कभी नहीं मिलेंगे, तो उनके साथ कुछ रियायत बरती जा सकती है। निजाम के राज़ी होने पर एक ऐसा समझौता हुआ, जिसके तहत भारत और हैदराबाद एक दुसरे कि राजधानी में एजेंट जनरल नियुक्त कर सकते थे। कुल मिलाकर, उस वक़्त का माहौल ऐसा बन गया था कि बाते ही बाते होती रहती थी और मामला उलझता जा रहा था। ऐसे में, सरदार पटेल ने कहा कि अगर निजाम इस जिद पर अड़े रहते है कि वह भारत में शामिल नहीं होंगे, तो उन्हें कम से कम लोकतान्त्रिक व्यवस्ता तो कायम कर ही देनी चाहिए। लेकिन हैदराबाद रियासत में कोई इस बात को मानने को तैयार ही नहीं था। इसलिए हैदराबाद को भारत के साथ मिलाना सरदार पटेल के सबसे मुश्किल कामो में एक साबित हुआ।

पता नहीं कहा से निजाम उस्मान अली खान को यह उम्मीद हो गई थी कि भारत कि आजादी के बाद हैदराबाद को भी 'दोमिनिअल स्टेटस' मिल जायेगा। जाहिर है, ऐसा हुआ नहीं, लेकिन इसी उम्मीद में निजाम ने थोक में गलतिय क़ी। यहाँ तक क़ी वह पर बकायदा शक्ति प्रयोग किया और हैदराबाद क़ी समस्या का हल निकाला गया. आखिर में सरदार को हैद्रब्द में सैन्य कार्यवाही करनी पड़ी, जिसके बाद ही हैदराबाद पूरी तरह से भारत का हिस्सा बन सका।

आज सरदार पटेल को गए ५९ साल हो गए, लेकिन अब भी महसूस होता है क़ी राजनितिक फैसले में उतनी ही दृढ़ता होनो चाहिए। राजनितिक फैसले में पर्दार्शिकता और मजबूती वास्तव में सरदार पटेल क़ी विरासत है। वैसे भी आंध्र प्रदेश क़ी राजनीती में बहुत सरे दाव-पेच होते है। जब सरदार पटेल जैसा गृह मंत्री परेशां हो सकता है, तो आज के गृह मंत्री को बहुत ही चौकन्ना रहना पड़ेगा। यदि वह वैसे ही फैसले लेते रहेंगे, जैसा इस बार लिया है, तो राजनितिक संकट और गहरा होगा।


शक्ति आनंद " क्या बात है "