ये कैसा भारत उदय’ और ‘भारत निर्माण’?


लोकसभा चुनाव नजदीक देख कांग्रेस की अगुवाई वाली सत्ताधारी यूपीए की चुनावी बयार इन दिनों विभिन्न विभागों की उपलब्धियों के रूप में टीवी चैनलों, रेडियो एवं पत्रिकाओं में बह रही है। विगते चार वर्षों में नौकरशाहों द्वारा तैयार किए गए कागज के पुलिंदों के जरिए ‘भारत निर्माण’ का पाठ लोगों को पाया जा रहा है। सरकारी टीवी चैनलों और रेडियो पर ‘भारत निर्माण’ के सपने को यूपीए सरकार उसी तरह दिखा रही है जिस तरह पिछले लोकसभा चुनाव में एनडीए ने ‘भारत उदय’ अथवा ‘इंडिया साइनिंग’ का दिखाया था। भारत उदय का हश्र क्या हुआ, ये सबको पता है।

जनता के धन की बर्बादी के बाद यूपीए सरकार का हश्र क्या होगा, यह अभी तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन क्या वास्तव में पिछले साढ़े चार सालों में श्भारत निर्माणश् के रूप में निकली विकास की किरण दूर-दराज के आदिवासी बहुल गांवों में पहुंच पायी है? यह सवाल देश के संवेदनशील नागरिकों के मन में उसी तरह उठने लगा है जिस तरह कभी एनडीए सरकार के विज्ञापन को देखकर उठा था। एक जमाना था जब ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की सूक्ति को जीवंत करने के लिए महात्मा गांधी और अन्य कांग्रेसी नेताओं ने कहा था कि हमारे देश का असली विकास तभी होगा जब हर गांव का विकास होगा। वर्तमान परिवेश में ऐसा नहीं दिख रहा। आज भी राजधानी और जनपद मुख्यालयों से दूर के गांवों में विकास के रूप में सरकार की ओर से चलायी जा रही योजनाओं की किरण नहीं पहुंच पा रही है और लोग भूख एवं बीमारी से दम तोड़ रहे हैं।

कुछ जनपदों में मुख्यालय से चंद किलोमीटर की दूरी पर बसे आदिवासियों को सरकारी योजनाओं का लाभ मिलना दूभर हो गया है और उनके बच्चे कुपोषण की चपेट में आकर दम तोड़ रहे हैं। आखिरकार यह कैसा ‘भारत निर्माण’ अथवा ‘भारत उदय’ है जो देश की आजादी के 60 वर्षों बाद भी गरीबों को दो वक्त की रोटी मुहैया नहीं करा सका? परमाणु करार, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, जन-सूचना अधिकार अधिनियम,छठें वेतन आयोग की सिफारिशों को अमली जामा पहनाने आदि को ‘भारत निर्माण’ की संज्ञा दे रही यूपीए सरकार की सच्चाई बुनियादी तौर पर दिखायी ही नहीं देती जिससे देश में कुपोषण और भूखमरी से हो रही मौतों पर अंकुश लग सके। यदि केंद्र सरकार छह माह में गड्ढे में तब्दील हो जाने वाली सड़को, पार्को, नालियों, फ्लाईओवर आदि (जिसमें ठेकेदारों का ही भला होता है) को ‘भारत निर्माण’ की संज्ञा देकर होकर खुश होना चाहती है तो बेशक हो सकती है, लेकिन क्रांतिकारी कांग्रेसियों के ‘भारत निर्माण’ के सपने से यह कोसों दूर है। परमाणु करार को प्रमुख उपलब्धि बता रही कांग्रेस नित यूपीए सरकार परमाणु से उत्पन्न ऊर्जा से देश को रोशन करना चाहती है, जबकि ये ऊर्जा भी उन्ही अमीरों और उद्योगपतियों की जागीर बनेगी जिनकी आज हैं। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र और मध्य प्रदेश के सीधी, सिंगरौली जनपदों में फैली एशिया की सबसे बड़ी नेशनल थर्मल पावर कारपोरेशन परियोजना, विंध्यनगर के बाद भी यहां के बाशिंदों को कम से कम 12 घंटे प्रतिदिन की औसत से बिजली नहीं मिल पाती है। परियोजना से सटे गांवों के लोग आज भी अंधेरे में रातें गुजारने को मजबूर हैं। परियोजना निर्माण में जमीन चले जाने के बाद भी यहां के किसानों को अधिकृत जमीन का ना ही मुआवजा मिल पाया है, ना ही अंधेरे से मुक्ति। ‘दीपक तले अंधेरे’ की कहावत आज भी देश के विद्युत परियोजनाओं वाली जगहों पर चरितार्थ है। फिर परमाणु करार से पैदा होने वाली बिजली से कैसे उनके घरों का अंधेरा मिट पायेगी जो आज भी दो वक्त की रोटी की तलाश में जंगलों की खाक छानते हैं और पहाड़ों में पत्थर तोड़ते हैं।
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) की पहुंच गांवों तक जरूर है लेकिन इसका हाल हाथी के दांत की तरह ही हैं। ग्राम प्रधान और ग्राम पंचायत विकास अधिकारी की मिलिभगत से जरूरत मंदों का धन तथाकथित दलालों की भेंट चढ़ जाता है। जाब-कार्ड बनवाने से लेकर मजदूरी के भुगतान लेने तक में ग्राम-प्रधानों को चड़ावा चड़ाना पड़ता है जिसकी शिकायत आये दिन ग्रामीण उच्चाधिकारियों से करते रहते हैं। योजना से संबंधित नियमों की पर्याप्त जानकारी नहीं होने अथवा आर्थिक हानि होने के कारण बहुत से लोग ग्राम प्रधान का विरोध नहीं कर पाते हैं। बहुतों को 100 दिन का रोजगार भी नहीं मिल पाता है। हर गांव में हजारों मजदूर नरेगा के लाभ से वंचित हैं। वैसे भी महंगाई के दौर में 100 दिन के रोजगार की आमदनी से एक मजदूर के परिवार का खर्च साल भर बड़ी मुश्किल से ही चल पाता है। अगर कोई बड़ी बीमारी ने अपना प्रकोप दिखा दिया तो फिर उसका जीना मरने के समान है।

जन सूचना अधिकार अधिनियम और वन अधिकार अधिनियम नौकरशाहों की करतूत के कारण दम तोड़ रहा हैं। दोनों का लाभ कुछ पड़े-दिखे लोग ही उठा पा रहे हैं। गरीब एवं आदिवासी जनता नौकरशाहों द्वारा रोज-रोज दौड़ाये जाने तथा आर्थिक हानि के डर से चुप बैठ जाती है और कानून आवेदन पत्र तक ही सीमित रह जाता है। छठें वेतन आयोग की शिफारिशों से असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और गरीब आदिवासियों का कोई भला नहीं होने वाला है। भारत निर्माण के पुलिंदों के आकड़ें कागजों तक ही सीमित होकर रह गये हैं जिसके कारण गरीब आदिवासियों को दो वक्त की रोटी के साथ पोषक पदार्थ नहीं मिल पा रहा है। परिणामस्वरूप भूखमरी और कुपोषण के शिकार होकर वे दम तोड़ रहे हैं। गत वर्ष के सितंबर में मध्य प्रदेश के श्योरपुर जिले में 137 बच्चों ने कुपोषण के चलते दम तोड़ दिया था। आदिवासी बहुल विकासखंड कराहल में सितंबर माह के दौरान हुई बच्चों की मौत की घटना और भी भयावह है। इस ब्लाक में इसी माह 78 कुपोषित बच्चे काल की गाल में समां गये थे। चालू वित्त वर्ष के सितंबर माह तक म्योरपुर जिले में कुल 228 बच्चे कुपोषण के चलते अपनी जिंदगी से हार गये थे, जबकि आफ दि रिकार्ड ये संख्या और भी अधिक हो सकती है। महाराष्ट्र के थाणे, नासिक, अमरावति, नुंदरबर, गौड़, चिरौली, उत्तर प्रदेश के झांसी, सोनभद्र, बिहार, राजस्थान के अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के हजारों बच्चों पर कुपोषण का कहर ढह चुका है और हजारों अभी भी इसकी चपेट में हैं। उत्तर प्रदेश के पिछड़े एवं अति नक्सल प्रभावित जनपद सोनभद्र में मुख्यालय से सटे घसिया बस्ती में कुछ माह पहले चार दिनों के अंदर आधा दर्जन बच्चों ने कुपोषण के कारण दम तोड़ दिया था और दर्जनों अभी भी कुपोषण की चपेट में हैं। ऐसा नहीं है कि इस बस्ती में कुपोषण से बच्चों के मरने की यह पहली घटना थी। यह बस्ती पूर्व में भी कुपोषण से 19 बच्चों के मौत की गवाह बन चुकी थी। फिर भी जिला प्रशासन सहित प्रदेश सरकार की कान पर जूं तक नहीं रेंगी। नक्सल प्रभावित जनपद के अधिकांश पहाड़ी गांवों में सरकारी यांजनाओं का लाभ जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पाया है। भारत निर्माण की कहानी यहां झूठी साबित हो रही है।

प्रश्न यह उठता है कि यदि वास्तव में ‘भारत निर्माण’ हो रहा है तो कुपोषण और भूखमरी से हो रही मौतों पर अंकुश क्यों नहीं लग पा रहा ? केंद्र सरकार एक बार श्योरपुर में कुपोषण से हुई बच्चों की मौत की जिम्मेवारी राज्य सरकार पर थोप कर खुद को बचाने की कोशिश कर सकती है। लेकिन इस बात से कैसे इंकार करेगी कि कुपोषण और भूखमरी से होने वाली मौतों के लिये अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के प्रति केंद्र सरकार ही जवाबदेय है, क्योंकि वे भारत सरकार को कुपोषण और भूखमरी पर अंकुश लगाने के लिये प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से अरबों रुपये का अनुदान देती हैं।

देश में कुपोषण से हो रही बच्चों की मौतें और गरीबों की बड़ रही गरीबी के बीच ‘भारत निर्माण’ का स्लोगन ग्रामीण भारत में गुम नजर आ रहा है। शहरों की चकाचैंध में स्लोगन को कुछ मजबूती मिल सकती है लेकिन ग्रामीण भारत की गरीबी में यह काफी पीछे है। आगामी लोकसभा में यूपीए सरकार द्वारा ‘वोट निर्माण’ के लिये ‘भारत निर्माण’ के दिये गये स्लोगन की सच्चाई तो हमें परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा लेकिन गरीबों की ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के स्लोगन का निर्माण देश की आजादी के 60 वर्षों बाद भी नहीं हो पाया है।

नोट-लेखक (अज्ञात) है।

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